ज्ञान का संयोजन या व्यवस्थापन क्या होता है
जैसा कि पिछले लेख में बताया गया था कि ज्ञान एक चित्तवृत्ति है जोकि विभिन्न अनुभवों के बीच तार्किक समबन्ध जोड़ती है जिससे कि जिससे संयोजित और व्यवस्थित अनुभवों की स्मृति बनती है जिसे संस्कार कहते हैं। चित्त इसी तरह के संस्कारों से बनी हुई रचना है जो और ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर-कर के और ज्यादा संस्कारित होती जाती है ये प्रक्रिया लगातार चल रही है यही चित्त का विकासक्रम है। परन्तु ये संयोजन क्या है और कैसे होता है इसे जानना भी आवश्यक है।
ज्ञान का संयोजन उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमे चित्त प्रत्यक्ष अनुभवों के बीच में विभिन्न सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। क्योकि चित्त के पटल पर अनुभव शुद्ध परिवर्तन मात्र होते हैं यदि उनके बीच कोई संबंध ना बनाया जाये तो उसकी कोई स्मृति नहीं बनेगी और इस कारण चित्त को उन अनुभवों का ज्ञान ना हो पायेगा और जीव का जीवित रहना भी असम्भव हो जायेगा लेकिन प्रकृति ने ये व्यवस्था की हुयी है कि चित्त की विभिन्न अवस्थों में उसे कुछ न कुछ अनुभव होते रहना चाहिए जिससे जीव का जीवत्व बना रहे। जीवन को बचाये रखने के लिए चित्त बहुत तरह के संबंध बनाने का प्रयास करता है इसके लिए चित्त स्मृति और संस्कारों का सहारा लेता है।
ये सम्बन्ध निम्न प्रकार से बनांये जाते हैं
१ - नाम - रूप के सम्बन्ध - ये बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया है चित्त में सबसे ज्यादा प्रयोग होने वाला सम्बन्ध यही है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति को देखकर सबसे पहले उसका नाम और रूप ही पटल पर उभरते हैं फिर चित्त उन्हें व्यवस्थित करके जो परिणाम देता है उसकी स्मृति चित्त में बन जाती है और ज्ञान प्राप्त होता है जोकि भविष्य में चित्त उपयोग कर सकता है । जैसे आग को छूने से हाथ के जलने में चित्त आग के गुणों और हाथ के बीच सम्बन्ध बना लेता है और पीड़ा की स्मृति बनती है दोबारा हाथ आग के पास ले जाने से पहले ही पुरानी स्मृति चित्तपटल पर उभर आती है और नुक्सान से बचा जा सकता है।
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